किसी की जिंदगी कितनी अनमोल है, ये बात हम जिंदगी खत्म होने के बाद समझ पाते हैं। इसी तरह से किसी भी व्यक्ति की वैल्यू हमें तब समझ में आती है, जब हमें वो व्यक्ति छोड़ कर चला जाता है। अक्सर हम अपने आसपास ऐसा बहुत कुछ होते हुए देखते हैं, जो मानवीय रूप से गलत होता है। लेकिन फिर भी हम उस गलती के भागीदार बनते हैं। कई बार तो ऐसा भी देखा गया है कि समाज की अमानवीय हरकतों के कारण व्यक्ति को आत्महत्या के सिवा कुछ समझ में नहीं आता है। कुछ ऐसा ही हुआ है पश्चिम बंगाल के रहने वाले कुशाल रॉय के साथ। आपको बता दें कि कुशाल रॉय एक समलैंगिक व्यक्ति हैं, जिसे एलजीबीटीक्यू समुदाय में ‘गे’ (Gay) कहा जाता है। एक गे होने के नाते उन्हें भी समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई का सामना करना पड़ा। कुशाल रॉय हैलो स्वास्थ्य के पाठकों को पत्र के माध्यम अपने द्वारा लड़ी गई समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई के बारे में बताएंगे और आत्महत्या के खिलाफ सुझाव देंगे। तो आइए कुशाल के समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई की कहानी सुनते हैं, उन्ही की जुबानी…
समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई से कैसे जीतें कुशाल?
मेरे प्यारे दोस्तों,
मैं आशा करता हूं कि आप सभी स्वस्थ होंगे और खुशहाल होंगे। जिंदगी में खुश रहना ही सबसे ज्यादा जरूरी है। मेरा मानना है कि हमें हर वो काम करना चाहिए, जिससे हमें खुशी मिलती है। लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि आपकी खुशी किसी के तकलीफ की वजह ना बन जाएं। मैं आपका दोस्त कुशाल रॉय, मेरी उम्र 23 साल है और मैं पश्चिम बंगाल के एक बंगाली परिवार से संबंध रखता हूं, फिलहाल मैं हैदराबाद में रहता हूं। मैं एक मानवाधिकार कार्यकर्ता (Human Rights Activist) और मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या जागरूकता का बड़ा समर्थक हूं।
मैं आज आपसे दो बातों के बारे में गुफ्तगू करना चाहता हूं। पहली बात है, आपका सेक्सुअल ओरिएंटेशन और दूसरी आत्महत्या। मैंने अक्सर देखा है कि लोग सिर्फ दो सेक्स के बारे में समझते हैं, वो है महिला (Female) और पुरुष (Male) और लोगों को लगता है कि दुनिया में आदमी और औरत ही एक दूसरे से प्यार की खातिर बने हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हम में से ज्यादातर लोग विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है, जो समान सेक्स की तरफ आकर्षित होते हैं। समाज में लोगों को लगता है कि ऐसे लोग समाज के लायक नहीं हैं, ऐसे लोग जानबूझकर समान सेक्स वाले से प्यार करते हैं। यहां पर यह कहावत सही लगती है कि ‘प्यार अंधा होता है’। जी हां, जैसे आप एक लड़की या लड़के से प्यार करते हैं, वैसे ही हम समलैंगिक होते हैं, अपने जैसे सेक्स वाले व्यक्ति से प्यार करते हैं। आज के समय में इस सोच के साथ समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई बहुत कठिन है, क्योंकि लोग समझना नहीं चाहते हैं।
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मुझे कब पता चला कि मैं ‘गे’ हूं?
आपकी पहचान क्या है और कैसे है, ये बात आप पर निर्भर करती है। मैं लिंग (Sex) पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि सेक्स एक बायोलॉजिकल तथ्य है। ‘सेक्स’ समाज के द्वारा बनाई और बांटी गई चीज है, इसलिए यह सामाजिक तौर पर मायने रख सकता है। मेरा सेक्स मेल है, लेकिन मुझे 6 साल की उम्र से ही पता था कि मैं समलैंगिक हूं, लेकिन उस वक्त मेरे पास खुद की पहचान को समझने के लिए शब्द नहीं थे। इसके बावजूद मुझे खुद पर गर्व है कि मैं एक समलैंगिक हूं। मैंने 17 साल की उम्र में खुल कर इस बात को स्वीकारा कि मैं एक ‘गे’ हूं, लेकिन मेरे मन में एक सवाल आता है कि क्या जब मैं पैदा हुआ तब समाज के नजर में यही था! शायद नहीं, मेरे पैदा होने पर पेरेंट्स को बधाईयां मिली होंगी कि बेटा हुआ है।
यहां पर मैं आपके मन से एक भ्रम दूर करना चाहूंगा कि मेल या फीमेल होना एक प्रकार का लिंग भेद है, जो सामाजिक तौर पर है। लेकिन जेंडर या सेक्सुअल ओरिएंटेशन व्यक्ति के स्वयं का आईना होता है। किसी भी मायने में समलैंगिक या LGBTQ होना कोई पसंद नहीं है – यह सिर्फ मैं कौन हूं और मैं हमेशा कौन रहा हूं, इसका एक हिस्सा है। मैं खुद को समलैंगिक के रूप में पहचानता हूं और खुद को उसी रूप में स्वीकार करता हूं। अगर आप खुद को ही स्वीकार नहीं करेंगे तो समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई के खिलाफ कभी खड़े नहीं हो पाएंगे।
मेरे परिवार ने मुझे किस तरह से स्वीकार किया?
जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि मैं एक बंगाली परिवार से ताल्लुक रखता हूं, तो इस हिसाब से मेरा परिवार काफी धार्मिक है। मेरे पेरेंट्स मुझे बातते हैं कि मुझे बचपन से ही फेमिनिन चीजें पसंद थी, जैसे गुड़ियों (Dolls) के साथ खेलना, फ्रॉक पहनना आदि। मेरे पेरेंट्स ने मुझे कभी इन चीजों के लिए डांटा नहीं और ना ही कभी ऐसा करने से रोका। मेरे परिवार में महिला और पुरुष में कोई अंतर नहीं समझा जाता था। मेरे पेरेंट्स ने मुझे सिखाया कि महिला और पुरुष दोनों बराबर है। मेरी मां खाना पकाती थी, तो मेरे पिता घर की सफाई और कपड़े तह कर के रखने जैसा काम कर देते थे। इस तरह से आप कह सकते हैं कि मेरा परिवार नारीवादी (Feminist) है।
शायद मेरे पेरेंट्स को मेरे सेक्सुअल ओरिएंटेशन के बारे में पहले से ही पता था। एक दिन बस ऐसे ही मैंने अपनी मां को बताया कि मैं एक लड़के के साथ डेट पर जा रहा हूं। मुझे लगा कि मेरी मां थोड़ी शॉक होंगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने मुझसे कहा कि “ठीक है, बस सुरक्षित रहना।” इसके बाद मुझे थोड़ी हिम्मत मिली और मैंने तब फेसबुक पर ‘इंटरेस्टेड’ वाले सेक्शन में पुरुषों के लिए अपनी रुचि डाल दी। इस बात को मुझसे जुड़े सभी लोग जानते थे, लेकिन वास्तव में किसी ने इस बात पर कोई टिप्पणी नहीं की। मेरे परिवार के लोगों ने मेरे साथ सामान्य रूप से व्यवहार किया, जो काफी अच्छा था। मुझे भी कभी उन्हें कुछ बताने की जरूरत महसूस नहीं हुई और ना ही उन्होंने कभी मेरी रूचि को लेकर चर्चा की। मैं समझता हूं कि हर कोई मेरे इतना भाग्यशाली नहीं हो सकता और शायद कुछ परिवारों को सेक्सुअल ओरिएंटेशन की बात समझ में नहीं आती है। इसलिए समलैंगिक समुदाय के लोग समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई हार जाते हैं और डिप्रेशन के शिकार हो कर आत्महत्या कर लेते हैं।
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मेरे प्रति समाज का क्या रवैया था?
मेरा मानना है कि समाज के ज्यादातर लोग एक ही धुरी पर चलते रहना पसंद करते हैं। लोगों से अलग चीजें सहन नहीं होती है। मैं भी समाज की इसी धारणा का शिकार हुआ था। मैं जब हाई स्कूल में था, तब मेरा बलात्कार हुआ था और जब मैंने ये बात अपने स्कूल में किसी विश्वसनीय व्यक्ति को बताई तो मेरे साथ हुई घटना को पूरे स्कूल में उजागर कर दिया गया। जिसके कारण स्कूल में मेरा शोषण हुआ और मुझे तंग किया जाने लगा।
इसके बाद किसी ने इस बात की शिकायत स्कूल के वाइस प्रिंसिपल से की। वाइस प्रिंसिपल ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया और कहा कि “मेरे साथ जो भी हुआ वो सब मेरी ही गलती है, क्योंकि मैं एक ‘गे’ हूं।” इसके बाद मुझे क्लासरूम में सभी स्टूडेंट चिढ़ाने लगे, यहां तक की मेरे गणित के अध्यापक भी मुझे तंग करते थे। कोई मेरे बाल खींचता, तो कोई मेरी नोटबुक को फर्श पर गिर कर हंसता था। मेरे टीचर मेरे पेरेंट्स को बताते थे कि मैं एक कमजोर स्टूडेंट हूं और मुझे निचले क्लास में दाखिल कराना चाहिए।
कहने को तो मेरी समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई यहां से शुरू होती थी, लेकिन इन वजहों से मैं खुद को अंदर से बहुत कमजोर मानने लगा। जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मेरे आसपास के लोगों के द्वारा मुझे तंग करना भी बढ़ता गया। मुझसे कोई दोस्ती नहीं करता था, मुझे अजीब नामों से चिढ़ाया जाता था। जिससे मैं पूरी तरह से तंग आ चुका था। फिर एक दिन तंग आकर मैंने आत्महत्या करने की सोची। मैंने फांसी लगाने की कोशिश की लेकिन रस्सी टूट गई। शायद जिंदगी मुझसे बहुत प्यार करती थी, लेकिन फिर भी मैं खुद को समाज के नजरिए से बाहर नहीं निकाल पाया और मुझे सालों तक डिप्रेशन का सामना करना पड़ा।
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इसके बाद मैंने दो साल पहले तीन बार अपने जीवन को समाप्त करने की कोशिश की, लेकिन मैं नाकाम रहा। डिप्रेशन और गंभीर एंग्जायटी के कारण मैं 2019 में आधे साल तक अपने काम पर नहीं गया। डिप्रेशन के कारण मैं रोज रोता था, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। एक बार तो मुझे दिन में तीन बार पैनिक अटैक भी आए, जो काफी डरावना था। मुझे हमेशा लगता था कि मैं प्यार के लायक नहीं हूं, मुझसे हर किसी को नफरत करनी चाहिए। इसके बाद मेरे पेरेंट्स ने मुझे डिप्रेशन और गंभीर एंग्जायटी के चलते डॉक्टर को दिखाना शुरू किया। इसके बाद 2020 की शुरुआत में मेरे डिप्रेशन और एंग्जायटी का इलाज करने वाले डॉक्टर ने बताया कि अब मैं पूरी तरह ठीक हूं और मुझे अब किसी भी थेरिपी की जरूरत नहीं है।
इसके बाद मेरी मां ने मुझसे एक दिन कहा कि “दूसरों से अलग होना अच्छा है, तुम दूसरों से अलग हो, इसलिए तुम उन्हें पसंद नहीं है। लेकिन तुम जैसे भी हो हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं।” मैंने काम करना शुरू किया, तो वहां पर मुझे कुछ ऐसे लोग मिले, जो मुझे समझते थे और मैं जैसा भी हूं वैसा मुझे स्वीकार करते थे। इसके बाद मुझ में आत्मविश्वास आता गया और आज मैं आप सभी से बात कर पा रहा हूं।
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समलैंगिक होने का मतलब क्या है?
अगर आप आम इंसान हैं तो आपको किसी को डेट करने में कम समस्या होगी। लेकिन आपको पता है कि समलैंगिक व्यक्ति को डेट करना मुश्किल होता है। एक समलैंगिक होने के नाते, मेरा मानना ये कि समलैंगिकता का मतलब सिर्फ सेक्स करने से संबंधित नहीं होता है। समलैंगिकता में दो लोग एक जैसे होते हैं, उनकी इच्छाएं एक सी होती है, वो एक दूसरे को समझते हैं और भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई से दोनों जूझ रहे हो। जिस तरह से एक महिला और पुरुष डेट करते हैं और शादी करते हैं, समलैंगिकता में भी बिल्कुल वैसा ही होता है। बस समझने वाली बात ये होती है कि वो आम लोगों से थोड़े अलग होते हैं, जो कि एक नॉर्मल बात है।
समलैंगिक रिलेशनशिप में एक सबसे बड़ी समस्या ये आती है कि दोनों में मतभेद हो सकते हैं। अब आप कहेंगे कि ये किस रिश्ते में नहीं होते हैं! समलैंगिक रिलेशनशिप में ये मामला थोड़ा अलग होता है। उदाहरण के तौर पर अगर दो ‘गे’ एक साथ रह रहे हैं, तो उसमें से एक साथी ने खुद को समलैंगिक के रूप स्वीकार किया और दूसरे साथी ने समाज के डर से खुद को समलैंगिक रूप में स्वीकार नहीं किया है। इस तरह से किसी भी समलैंगिक रिलेशनशिप में कुछ मतभेद सामाजिक सोच के कारण आ सकते हैं।
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समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई कैसे जीती जा सकती है?
समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई भारतीय कानून ने तो खत्म कर दी है। धारा 377 के खारीज होते ही समलैंगिकों को अपनी जीत मिल गई, लेकिन इसके बावजूद उनकी समाज से लड़ाई चलती जा रही है। आज सभी को पता है, कि समलैंगिक होना एक सामान्य बात है, लेकिन इसके बाद भी लोग इसे सामान्य समझने को तैयार नहीं हैं। समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई जीतने का सिर्फ एक ही तरीका है, वो हैं हमारी सोच, हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हमें समलैंगिक लोगों की कहानियां, समलैंगिकता पर आधारित मूवीज, गे साइंस फिक्शन आदि पढ़नी चाहिए और उन्हें समझना चाहिए कि समलैंगिक भी एक आम इंसान ही होता है।
दोबारा जिंदगी पा कर जाना कि आत्महत्या पाप है
मैंने तीन बार जीवन को समाप्त करने की नाकाम कोशिश और डिप्रेशन व एंग्जायटी के बाद जाना कि मैं पाप कर रहा था। डिप्रेशन और एंग्जायटी कोई मजाक नहीं है, लोग इसे हंसी-मजाक में उड़ा देते हैं कि “फालतू बात कर रहा है कि इसे डिप्रेशन है, अरे इसे किस बात की चिंता हो सकती है?” ऐसा नहीं है, एक समलैंगिक होने के नाते मैं जानता हूं कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को आम लोगों से ज्यादा मानसिक समस्या और तनाव से गुजरना पड़ता है। हमारे समाज में एलजीबीटीक्यू समुदाय को एक श्राप के रूप में देखा जाता है, यहां तक की एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग खुद को समाज की नजरों से ही देखने लगते हैं। इसी कारण वे डिप्रेशन, एंग्जायटी, सुसाइडल टेंडेंसी आदि के शिकार होते हैं।
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आपका दोस्त होने के नाते, मैं कुशाल रॉय आपसे सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि “जिंदगी एक ही बार मिलती हैं, इसे खत्म करने के लिए बहुत सारी बीमारियां और कोविड-19 जैसी महामारियां हैं। इसलिए खुद की पहचान से प्यार करें, आप जैसे हैं, खुद को वैसे ही प्यार करें। आप किसी के लिए बदल कर, खुद को प्यार ना करें।”
हम सब किसी एक दिन सुसाइड प्रेवेंशन डे (Suicide Prevention Day) मनाते हैं। क्या आपको पता है कि हर 40 सेकेंड में पूरी दुनिया में कोई ना कोई सुसाइड करता है। इस तरह से तो हमें रोजाना सुसाइड प्रेवेंशन डे मनाना चाहिए। हमेशा याद रखें कि आत्महत्या करने से पहले एक आहट होती है, जिसे समझने की जरूरत है। अगर आपका कोई दोस्त या रिश्तेदार कुछ अलग तरीके से व्यवहार कर रहा है, अपने सोशल मीडिया पर उदासी से भरी चीजें पोस्ट कर रहा है, तो आप उससे बात करें। उसकी समस्या के बारे में जानें और इलाज कराएं।
आत्महत्या की रोकथाम नस्लवाद (racism), लिंगवाद (sexism), लिंग आधारित भेदभाव (gender based discrimination), होमोफोबिया, ट्रांसफोबिया और बाइफोबिया को कम कर सकती है। जैसे अच्छी स्वास्थ्य सुविधा सभी का अधिकार है, वैसे ही समलैंगिकों के अधिकार के तहत आप भी अपनी मानसिक स्थिति का बेहतर तरीके से इलाज करा सकते हैं। शायद मैं इसलिए ही जिंदा हूं, क्योंकि मुझे समय पर बेहतर मानसिक इलाज मिला। मैं ये बात मानता हूं कि हर कोई मनोचिकित्सक का खर्च नहीं उठा सकता; इसके लिए कई तरह की एनजीओ और सरकारी संस्थाएं सुसाइड प्रेवेंशन के लिए बेहतर मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं, मानसिक स्वास्थ्य उपचार, पर्याप्त मानसिक स्वास्थ्य सहायता मुहैया करा रही हैं।
अंत में मैं हैलो स्वास्थ्य के माध्यम से आपसे सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि “आप जैसे हो खूबसूरत हो, आप किस सेक्स के साथ पैदा हुए ये मायने नहीं रखता है, आपका सेक्सुअल ओरिएंटेशन क्या है, ये बात जरूरी है। खुद को पहचानें, समाज के सामने खुद को स्वीकार करें, क्योंकि आपका जीवन आपके लिए आशीर्वाद है। हमेशा स्वस्थ रहें, मस्त रहें, क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे और लोगों का काम है कहना। समलैंगिक की सामाजिक लड़ाई यूं ही चलती रहेगी, इससे हारें नहीं, बल्कि डट कर मुकाबला करें।”
आपका अपना
कुशाल रॉय
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